
द्वादशस्वपि मासेषु श्रावणो मेऽतिवल्लभः । श्रवणार्हं यन्माहात्म्यं तेनासौ श्रवणो मत: ॥
श्रवणर्क्षं पौर्णमास्यां ततोऽपि श्रावण: स्मृतः। यस्य श्रवणमात्रेण सिद्धिद: श्रावणोऽप्यतः ॥

श्रावण मास की एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा समुद्र मंथन से जुड़ी है…
रानुप्रिया(रायपुर):- इस कथा के अनुसार- श्रावण मास में ही देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया था। मंथन के दौरान विष (हलाहल) निकला, जिसे भगवान शिव ने सृष्टि को बचाने के लिए ग्रहण कर लिया। इससे उनका कंठ नीला हो गया और वे “नीलकंठ” कहलाए। देवताओं ने भगवान शिव को विष के प्रभाव से बचाने के लिए उन पर जल चढ़ाया, जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने श्रावण मास में जल चढ़ाने की परंपरा शुरू की…
श्रावण मास भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है। इस महीने में माता पार्वती ने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार किया, इसलिए, श्रावण मास में भगवान शिव की पूजा-अर्चना और जलाभिषेक का विशेष महत्व है। भक्तजन इस महीने में सोमवार का व्रत रखते हैं और भगवान शिव को जल, दूध, बेलपत्र आदि अर्पित करते हैं…

श्रावण हिंदू पंचांग के अनुसार चैत्र माह से प्रारंभ होने वाले वर्ष का पाँचवा मास है। भारत में इस माह में वर्षा ऋतु होती है और प्रायः बहुत अधिक गर्मी होती है। श्रावण मास, जिसे सावन का महीना भी कहा जाता है, भगवान शिव की पूजा करने और उनका आशीर्वाद पाने के लिए मनाया जाता है। सावन माह के दौरान सोमवार का दिन शुभ होता है और ऐसा माना जाता है कि यदि भक्त समर्पण के साथ भगवान शिव की पूजा करे तो भगवान शिव उनकी मनोकामनाएं पूरी करते हैं।
श्रावण मास शिवजी को विशेष प्रिय है। भोलेनाथ ने स्वयं कहा है—
द्वादशस्वपि मासेषु श्रावणो मेऽतिवल्लभः । श्रवणार्हं यन्माहात्म्यं तेनासौ श्रवणो मत: ॥
श्रवणर्क्षं पौर्णमास्यां ततोऽपि श्रावण: स्मृतः। यस्य श्रवणमात्रेण सिद्धिद: श्रावणोऽप्यतः ॥
अर्थात मासों में श्रावण मुझे अत्यंत प्रिय है। इसका माहात्म्य सुनने योग्य है अतः इसे श्रावण कहा जाता है। इस मास में श्रवण नक्षत्र युक्त पूर्णिमा होती है इस कारण भी इसे श्रावण कहा जाता है। इसके माहात्म्य के श्रवण मात्र से यह सिद्धि प्रदान करने वाला है, इसलिए भी यह श्रावण संज्ञा वाला है।
पर्व, त्यौहार एवं व्रत
श्रावण कृष्ण(पक्ष) प्रतिपदा : पार्थिव शिव पूजन प्रारंभ
श्रावण कृष्ण(पक्ष) पञ्चमी : मौना पञ्चमी
श्रावण कृष्ण(पक्ष) एकादशी : कामदा एकादशी व्रत
श्रावण कृष्ण(पक्ष) त्रयोदशी : प्रदोष व्रत
श्रावण कृष्ण(पक्ष) अमावस्या : हरियाली अमावस्या/हरेली पर्व
श्रावण शुक्ल(पक्ष) तृतीया : हरियाली/मधुश्रावणी तीज
श्रावण शुक्ल(पक्ष) पञ्चमी : नाग पञ्चमी
श्रावण शुक्ल(पक्ष) एकादशी : पुत्रदा एकादशी व्रत
श्रावण शुल्क(पक्ष) पूर्णिमा: रक्षाबन्धन

द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र से सात जन्मो के मिलते है पुण्य
“सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। उज्जयिन्यां महाकालमोंकारं ममलेश्वरम्॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम्। सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे। हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः। सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥”
यह स्तोत्र 12 ज्योतिर्लिंगों का स्मरण कराता है और इसका पाठ करने से सात जन्मों के पापों का नाश होता है।
12 ज्योतिर्लिंगों के नाम और स्थान:
- सोमनाथ: गुजरात के सौराष्ट्र में
- मल्लिकार्जुन: श्रीशैल पर
- महाकाल: उज्जयिनी में
- ओंकारेश्वर: ममलेश्वर (अमरेश्वर)
- वैद्यनाथ: परली में
- भीमाशंकर: डाकिनी में
- रामेश्वर: सेतुबंध पर
- नागेश्वर: दारुकावन में
- विश्वनाथ: वाराणसी में
- त्र्यंबकेश्वर: गौतमी (गोदावरी) के तट पर
- केदारनाथ: हिमालय पर
- घृष्णेश्वर: शिवालय में
पौराणिक कथा:- भारतीय पौराणिक कथाओं के अनुसार, सावन के इतिहास का पता समुद्र मंथन से लगाया जा सकता है जब देवता और असुर अमृत या अमरता के अमृत की तलाश में एक साथ समुद्र मंथन के लिए आए थे। समुद्र मंथन के दौरान आभूषण, पशु, देवी लक्ष्मी और धन्वंतरि सहित कई चीजें उत्पन्न हुईं। हालाँकि, जब हलाहल, एक घातक जहर सामने आया, तो इससे अराजकता फैल गई। जो भी इसके संपर्क में आया उसका विनाश होने लगा। इसके चलते भगवान ब्रह्मा और भगवान विष्णु ने भगवान शिव से मदद मांगी। उन्होंने भगवान शिव से, जो इस शक्तिशाली जहर को सहन कर सकते थे, इसका सेवन करने का अनुरोध किया। जब शिव ने जहर पिया तो उनका कंठ और शरीर नीला पड़ गया। भगवान के पूरे शरीर में जहर फैलने से चिंतित देवी पार्वती ने उनके गले में प्रवेश किया और जहर को आगे फैलने से रोक दिया। इस प्रकार भगवान शिव को नीलकंठ कहा जाने लगा।[1]ये घटनाएँ सावन के महीने में हुईं। इसलिए इस पूरे महीने सोमवार के दिन भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा की जाती है। हिंदू सावन महीने को शुभ मानते हैं क्योंकि इस दौरान कई महत्वपूर्ण त्योहार मनाए जाते हैं।
बिल्वपत्र, धतूरा, भांग, बेर, पंच फल, पंच मेवा, मंदार पुष्प, कच्चा दूध, कपूर, धूप, दीप, रूई, मलयागिरी, चंदन, शुद्ध देशी घी, मौली जनेऊ, पंच मिठाई, शहद, गंगाजल, शिव व मां पार्वती की श्रृंगार सामग्री से पूजन करनी चाहिए |

पूजा विधि:- ऐसी मान्यता है भोलेनाथ की पूजा और व्रत करने से वैवाहिक जीवन सुखमय होता है, वहीं अविवाहित लड़कियों को मनचाहे वर की प्राप्ति होती है | शिव-पार्वती प्रतिमा की फूल, दक्षिणा, पूजा के बर्तन, दही, पंच रस, इत्र, गंध रोली, बिल्वपत्र, धतूरा, भांग, बेर, पंच फल, पंच मेवा, मंदार पुष्प, कच्चा दूध, कपूर, धूप, दीप, रूई, मलयागिरी, चंदन, शुद्ध देशी घी, मौली जनेऊ, पंच मिठाई, शहद, गंगाजल, शिव व मां पार्वती की श्रृंगार सामग्री से पूजन करनी चाहिए |

कांवड़ यात्रा: हर साल श्रावण मास में करोड़ों की तादाद में कांवडिये सुदूर स्थानों से आकर गंगा जल से भरी कांवड़ लेकर पदयात्रा करके अपने गांव वापस लौटते हैं इस यात्राको कांवड़ यात्रा बोला जाता है। श्रावण की चतुर्दशी के दिन उस गंगा जल से अपने निवास के आसपास शिव मंदिरों में शिव का अभिषेक किया जाता है। कहने को तो ये धार्मिक आयोजन भर है, लेकिन इसके सामाजिक सरोकार भी हैं। कांवड के माध्यम से जल की यात्रा का यह पर्व सृष्टि रूपी शिव की आराधना के लिए हैं। पानी आम आदमी के साथ साथ पेड पौधों, पशु – पक्षियों, धरती में निवास करने वाले हजारो लाखों तरह के कीडे-मकोडों और समूचे पर्यावरण के लिए बेहद आवश्यक वस्तु है। उत्तर भारत की भौगोलिक स्थिति को देखें तो यहां के मैदानी इलाकों में मानव जीवन नदियों पर ही आश्रित है
इतिहास:- हिंदू पुराणों में कांवड़ यात्रा का संबंध दूध के सागर के मंथन से है। जब अमृत से पहले विष निकला और दुनिया उसकी गर्मी से जलने लगी, तो शिव ने विष को अपने अंदर ले लिया लेकिन, इसे अंदर लेने के बाद वे विष की नकारात्मक ऊर्जा से पीड़ित होने लगे। त्रेता युग में, शिव के भक्त रावण ने कांवड़ का उपयोग करके गंगा का पवित्र जल लाया और इसे पुरामहादेव में शिव के मंदिर पर डाला। इस प्रकार शिव को विष की नकारात्मक ऊर्जा से मुक्ति मिली।
धार्मिक महत्त्व:- धार्मिक संदर्भ में कहें तो इंसान ने अपनी स्वार्थपरक नियति से शिव को रूष्ट किया है। कांवड यात्रा का आयोजन अति सुन्दर बात है, लेकिन शिव को प्रसन्न करने के लिए इन आयोजन में भागीदारी करने वालों को इसकी महत्ता भी समझनी होगी। प्रतीकात्मक तौर पर कांवड यात्रा का संदेश इतना है कि आप जीवनदायिनी नदियों के लोटे भर जल से जिस भगवान शिव का अभिषेक कर रहे हें वे शिव वास्तव में सृष्टि का ही दूसरा रूप हैं। धार्मिक आस्थाओं के साथ सामाजिक सरोकारों से रची कांवड यात्रा वास्तव में जल संचय की अहमियत को उजागर करती है। कांवड यात्रा की सार्थकता तभी है जब आप जल बचाकर और नदियों के पानी का उपयोग कर अपने खेत खलिहानों की सिंचाई करें और अपने निवास स्थान पर पशु पक्षियों और पर्यावरण को पानी उपलब्ध कराएं तो प्रकृति की तरह उदार शिव सहज ही प्रसन्न होंगे।